Saturday, December 10, 2011

निर्वाण

निर्वाण


जब भी मैं
चौकड़ी मार
रीड़ की हड्डी सीधी कर
दो उन्गलिओं के पोरों को जोड़
पुरातन योगिओं की भांति
आँखें मूँद कर
ध्यान में बैठने की
कोशिश करती हूँ
तो
अचानक मुझे
घेर लेता है
अजीबो गरीब चिंतन !

चलचित्र की भांति दौड़ते हैं
आस पास घट रही
खौफनाक घटनाओं के ख्याल !

शून्य होने को लोचता मन
कर लेता है इकठ्ठा
कूड़ा करकट !

चिंतन की पिटारी में
भर जाता है
टी वी पर चलती
ख़बरों का सहम
अख़बारों में पड़ी
सुर्खिओं का डर
संसार भर में फैला आतंक !

लगता है हर लम्हा
मेरे विरुद्ध साजिश घड रहा है !

ऊर्जा संजोने की
कोशिश में लगे
मेरे रोम रोम में
विस्फोट हो जाता है !

डर कर आँखें खोल
देखती हूँ इधर-उधर
क्या मुझे कभी
निर्वाण मिलेगा !

Friday, November 18, 2011

फिर कभी


अभी अधूरा है

तलाश का सफर


अभी पकड़ रहीं हूँ

पानी में घुल गई

अपनी परछाई


अभी गिन रही हूँ

हवा में मिल गये

सांसों के साल


ढून्ढ रही हूँ

चले हुए कदमों के

[[[[[[[रास्ते


सुनती हूँ

शब्दों में गुम्म

अपने हिस्से के

गीतों के बोल


छोड़ आई हूँ पीछे

कितनी मंजिलों के

मील पत्थर !


अभी मेरा चिन्तन अधूरा

अधूरी नज्में

अधूरी ज़िन्दगी की परिभाषा !


ढून्ढ रही हूँ

अधूरी हस्ती का

गुम्म हुआ आधापन


अभी तो मैं रहूंगी अधूरी

पूर्ण हूँगी फिर कभी !





Tuesday, October 25, 2011

पल

सखी अब मुझे
इक पल में जीना
जो हो रहा है
होता रहेगा
कोई हंसता है
मैं भी हंस दूं
कोई गाए तो
गाने लगूं
नाचता है कोई तो
मैं भी नाचूं
अगर कोई रोये
तो रोने न दूं
दुख में समय
गवाने न दूं

इक पल का
बस जीवन
अगले पल क्या होगा
क्या पता !

जब मैं ही न रहूंगी
क्या बचा
क्या पडा है
मुझे क्या लेना ?

जो है
बस यही पल है
इस पल में रह सकुं
बस यही है इच्छा !

सुरजीत - मेरी पुस्तक 'हे सखी' में से
--

Sunday, February 13, 2011

तू मिलना ज़रूर…





तू मिलना ज़रूर…
सुरजीत

हिंदी रूपान्तर : सुभाष नीरव

तू बेशक
कड़कती धूप बनकर मिलना
या गुनगुनी दोपहर की गरमाहट बन
घोर अंधेरी रात बनकर मिलना
या सफ़ेद-दुधिया चाँदनी का आँगन बन

मैं तुझे पहचान लूँगी
खिड़की के शीशे पर पड़तीं
रिमझिम बूँदों की टप-टप में से
दावानल में जलते गिरते
दरख़्तों की कड़-कड़ में से

मलय पर्वत से आतीं
सुहानी हवाओं की
सुगंधियों में मिलना
या हिमालय पर्वत की
नदियों के किनारे मिलना

धरती की कोख में पड़े
किसी बीज में मिलना
या किसी बच्चे के गले में लटकते
ताबीज़ में मिलना
लहलहाती फ़सलों की मस्ती में
या गरीबों की बस्ती में मिलना
पतझड़ के मौसम में
किसी चरवाहे की नज़र में उठते
उबाल में मिलना
या धरती पर गिरे सूखे पत्तों के
उछाल में मिलना

मैं तुझे पहचान लूँगी…
किसी भिक्क्षु की चाल में से
किसी नर्तकी के नृत्य की लय में से
किसी वीणा के संगीत में से
किसी हुजूम के शोर में से।

तू मिलना बेशक
किसी अभिलाषी की आँख का आँसू बन
किसी साधक के ध्यान का चक्षु बन
किसी मठ के गुम्बद की गूँज बन
या रास्ता खोजता सारस बन
तू मिलना ज़रूर
मैं तुझे पहचान लूँगी।
00

Monday, January 24, 2011

दहलीज़

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दहलीज़

पहली उम्र के
वे अहसास
वे विश्वास
वे चेहरे
वे रिश्ते
अभी भी चल रहे हैं
मेरे साथ-साथ।

यादों के कुछ कंवल
अभी भी मन की झील में
तैर रहे हैं ज्यों के त्यों।

सुन्दर-सलौने सपने
अभी भी पलकों के नीचे
अंकुरित हो रहे हैं
उसी तरह।

तितलियों को पकड़ने की
उम्र के चाव
अभी भी मेरी हथेलियों पर
फुदक-फुदक कर नाच रहे हैं।
इन्द्र्धनुष के सातों रंग
अभी भी मेरी आँखों में
खिलखिलाकर हँस रहे हैं।

मेरे अन्दर की सरल-सी लड़की
अभी भी दो चुटियाँ करके
हाथ में किताबें थामे
कालेज में सखियों के संग
ज़िन्दगी के स्टेज पर
गिद्धाडालती है।

हैरान हूँ कि
मन के धरातल पर
कुछ भी नहीं बदलता
पर आहिस्ता-आहिस्ता
शीशे में अपना अक्स
बेपहचान हुआ जाता है।
00
(
सुरजीत जी की उक्त दोनों कविताओं का हिन्दी अनुवाद तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग आरसीमें छपी उनकी पंजाबी कविताओं से किया गया है।)

प्रस्तुतकर्ता सुभाष नीरव पर १०:२५ अपराह्न 7 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक


Monday, January 17, 2011

गुमशुदा

गुमशुदा

बहुत सरल लगता था
कभी
चुम्बकीय मुस्कराहट से
मौसमों में रंग भर लेना

सहज ही
पलट कर
इठलाती हवा का
हाथ थाम लेना

गुनगुने शब्दों का
जादू बिखेर
उठते तुफानों को
रोक लेना

और बड़ा सरल लगता था
ज़िन्दगी के पास बैठ
छोटी-छोटी बातें करना
कहकहे मार कर हँसना
शिकायतें करना
रूठना और
मान जाना…

बड़ा मुश्किल लगता है
अब
फलसफों के द्वंद में से
ज़िन्दगी के अर्थों को खोजना
पता नहीं क्यों
बड़ा मुश्किल लगता है…
00

Monday, January 10, 2011

एक दिया


एक दिया

इस बार जब

दीवाली के दिए जलाएं

तो एक दिया

उनके नाम का भी जलाना

जो हाथों में मशालें पकड़

काफिलों के आगे हो चले !

हक्क और सच की जीत की खातिर

हकूमतों से लड़े

और आने वाली पीडिओं का

रास्ता सवांरने के लिए

सूलिओं पे चड़े !

एक दिया उनके नाम का भी जलाना

जिनकी कुर्बनिओं की

कभी भी किसी ने भी चर्चा न की

जिनके परिवार वालों ने

उनकी दी कुर्बनिओं की खातिर

ज़ुल्म सहे

और खुद्कशियां कीं !

इस दीवाली

उनके नाम का बस

एक दिया जला देना

बस एक दिया !

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