Saturday, December 10, 2011

निर्वाण

निर्वाण


जब भी मैं
चौकड़ी मार
रीड़ की हड्डी सीधी कर
दो उन्गलिओं के पोरों को जोड़
पुरातन योगिओं की भांति
आँखें मूँद कर
ध्यान में बैठने की
कोशिश करती हूँ
तो
अचानक मुझे
घेर लेता है
अजीबो गरीब चिंतन !

चलचित्र की भांति दौड़ते हैं
आस पास घट रही
खौफनाक घटनाओं के ख्याल !

शून्य होने को लोचता मन
कर लेता है इकठ्ठा
कूड़ा करकट !

चिंतन की पिटारी में
भर जाता है
टी वी पर चलती
ख़बरों का सहम
अख़बारों में पड़ी
सुर्खिओं का डर
संसार भर में फैला आतंक !

लगता है हर लम्हा
मेरे विरुद्ध साजिश घड रहा है !

ऊर्जा संजोने की
कोशिश में लगे
मेरे रोम रोम में
विस्फोट हो जाता है !

डर कर आँखें खोल
देखती हूँ इधर-उधर
क्या मुझे कभी
निर्वाण मिलेगा !