
दहलीज़
पहली उम्र के
वे अहसास
वे विश्वास
वे चेहरे
वे रिश्ते
अभी भी चल रहे हैं
मेरे साथ-साथ।
यादों के कुछ कंवल
अभी भी मन की झील में
तैर रहे हैं ज्यों के त्यों।
सुन्दर-सलौने सपने
अभी भी पलकों के नीचे
अंकुरित हो रहे हैं
उसी तरह।
तितलियों को पकड़ने की
उम्र के चाव
अभी भी मेरी हथेलियों पर
फुदक-फुदक कर नाच रहे हैं।
इन्द्र्धनुष के सातों रंग
अभी भी मेरी आँखों में
खिलखिलाकर हँस रहे हैं।
मेरे अन्दर की सरल-सी लड़की
अभी भी दो चुटियाँ करके
हाथ में किताबें थामे
कालेज में सखियों के संग
ज़िन्दगी के स्टेज पर
‘गिद्धा’ डालती है।
हैरान हूँ कि
मन के धरातल पर
कुछ भी नहीं बदलता
पर आहिस्ता-आहिस्ता
शीशे में अपना अक्स
बेपहचान हुआ जाता है।
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(सुरजीत जी की उक्त दोनों कविताओं का हिन्दी अनुवाद तनदीप तमन्ना के पंजाबी ब्लॉग “आरसी” में छपी उनकी पंजाबी कविताओं से किया गया है।)
प्रस्तुतकर्ता सुभाष नीरव पर १०:२५ अपराह्न 7 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक
सुरजीत जी , बहुत ही बढ़िया रचना.उम्र आगे निकल जाती है , हम पीछे रह जातें हैं
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